ईमान बन्दा एवं उसके रब के बीच के रिश्ते को कहते हैं। जिसने उसे काटना चाहा, उसका मामला अल्लाह के हवाले है। मगर जो इसका एलान करना चाहता है और इसे इस्लाम से लड़ने, उसके चेहरे को बिगाड़ने या उसके साथ विश्वासघात करने के ज़रिया के तौर पर लेना चाहता है, खुद मानव निर्मित जंगी क़ानूनों के अनुसार भी उसकी हत्या अनिवार्य है। इससे कोई असहमत नहीं है।
इस्लाम से फिर जाने की सज़ा के हवाले से संदेह की समस्या की जड़ संदेह करने वालों का यह मानना है कि सभी धर्म सही हैं। उनका मानना है कि सृष्टिकर्ता पर ईमान, एकमात्र उसी की इबादत करना एवं उसे हर दोष और कमी से पवित्र समझना, उसके अस्तित्व के इंकार और इस विश्वास के बराबर है कि वह मनुष्य या पत्थर के आकार में प्रकट होता है या उसकी औलाद है। जबकि अल्लाह इन सब चीज़ों से बहुत ऊँचा एवं पाक है। इस भ्रम का कारण कुछ लोगों का यह विश्वास है कि सभी धर्म सत्य पर हो सकते हैं। हालाँकि तर्क की वर्णमाला जानने वाले किसी भी व्यक्ति को यह बात हज़म नहीं हो सकती है। यह स्वतः स्पष्ट है कि ईमान नास्तिक्ता एवं कुफ्र का उल्टा है। इसलिए सही आस्था रखने वाला व्यक्ति पाता है कि सत्य को सापेक्ष कहना तार्किक लापरवाही और मूर्खता है। इस तरह, दो आपस में विरोधी आस्थाओं को सत्य मानना सही नहीं है।
इन तमाम तथ्यों के अलावा मुर्तद (इस्लाम से फिर जाने वाले) कभी भी सज़ा के हक़दार नहीं ठहरेंगे, यदि वे इसका (रिद्दत का) एलान न करें। वे इस बात को अच्छी तरह जानते भी हैं। परन्तु वे मुस्लिम समाज से माँग करते हैं कि वह बिना किसी रोक-टोक के उनके लिए अल्लाह एवं उसके रसूल के साथ उपहास का दरवाज़ा खोल दें, ताकि वे दूसरों को भी कुफ्र एवं अवज्ञा पर प्रोत्साहित कर सकें। उदाहरण स्वरूप कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिनको पृथ्वी का कोई भी राजा अपने राज्य की भूमि पर स्वीकार नहीं करता है। मसलन यह कि उसकी प्रजा का कोई व्यक्ति राजा के अस्तित्व को नकारे, उसका या उसके किसी दल का उपहास करे या उसको ऐसे दोष से दोषित करे, जो राजा के तौर पर उसकी स्थिति के योग्य नहीं है। तो राजाओं के राजा के बारे में आप क्या कहोगे, जो हर चीज़ का निर्माता तथा मालिक है?
कुछ लोग यह सोचते हैं कि जब मुसलमान कुफ़्र करे, तो तुरंत उसपर सज़ा लागू की जाती है। जबकि सही बात यह है कि कुछ कारण होते हैं जो असल में उसको काफ़िर क़रार देने के रास्ते में रुकावट बनते हैं, जैसा कि अज्ञानता, ग़लत व्याख्या, मजबूरी या भूल आदि। इसी लिए अधिकांश विद्वानों ने मुर्तद को तौबा करवाने की पुष्टि की है, क्योंकि हो सकता है कि उसे सत्य को समझने में भ्रम हुआ हो। लेकिन उस मुर्तद को तौबा का अवसर नहीं दिया जाएगा, जो युद्ध पर उतर आए। [156] इब्न-ए-क़ुदामा ''अल-मुग़नी'' में।
मुसलमान मुनाफ़िक़ों (जो कुफ्र को सीने में छुपाए रखते थे और मुसलमान होने का दिखावा करते थे) के साथ मुसलमान जैसा ही व्यवहार करते थे। उनके मुसलमान जैसे ही अधिकार थे। हालाँकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उन लोगों को जानते थे और अपने सहाबी हुज़ैफ़ा को उनके नाम भी बता दिए थे। ऐसा इसलिए कि उन मुनाफ़िक़ों नें अपने कुफ़्र का एलान नहीं किया था।