इन लोगों पर महान अल्लाह अत्याचार नहीं करेगा, मगर क़यामत के दिन उनकी परीक्षा लेगा?
जिन लोगों को इस्लाम को ठीक से देखने का अवसर नहीं मिला है, उनके पास कोई बहाना नहीं है। क्योंकि, जैसा कि हमने बताया, उन्हें खोजने और सोचने में कमी नहीं करनी चाहिए। यद्यपि तर्क की स्थापना के संबंध में निश्चित होना कठिन है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों से भिन्न होता है (इस मामले में कि उसपर तर्क स्थापित हुआ या नहीं)। अज्ञानता के उज्र या तर्क न पहुँचने के उज्र (excuse) का फैसला आख़िरत में अल्लाह तआला करेगा। जहाँ तक दुनिया की बात है, तो यहाँ जो सामने नज़र आए, उसके अनुसार व्यवहार किया जाएगा।
इन सब तर्कों के बाद जो अल्लाह ने लोगों पर क़ायम किए, यदि अल्लाह ने उनपर दण्ड की आज्ञा दे दी, तो यह अन्याय नहीं होगा। तर्क का मलतब है अक़्ल, स्वाभाविक प्रवृत्ति और वो संदेश एवं निशानियाँ जो ब्रह्मांड एवं स्वयं इन्सान के अंदर मौजूद हैं। इन सब के बदले में उन्हें कम से कम यह करना चाहिए कि वे अल्लाह तआला को जानें और उसे एक मानें और कम से कम इस्लाम के स्तंभों के प्रति प्रतिबद्ध रहें। यदि उन्होंने ऐसा किया तो सदैव के जहन्नम से नजात पा लेंगे एवं दुनिया व आख़िरत में ख़ुशी पाएंगे। क्या आप समझते हैं कि यह मुश्किल है?
अल्लाह तआला का अपने बन्दों पर अधिकार है, जिन्हें उसने पैदा किया है कि वे केवल उसी की इबादत करें। जबकि अल्लाह पर उसके बंदों का हक़ यह है कि वह उन लोगों को सज़ा न दे, जो उसके साथ किसी को शरीक नहीं करते हैं। मामला बहुत सरल है। यह वो शब्द हैं जिन्हें इंसान कहता है, उनपर ईमान रखता है और उनके अनुसार अमल करता है। यह नजात के लिए पर्याप्त है। क्या यह न्याय नहीं है? यही महान अल्लाह का आदेश है और वह न्याय करने वाला, नरमी करने वाला एवं जानकारी रखने वाला है। यही अल्लाह तआला का धर्म है।
वास्तविक मुश्किल यह नहीं है कि इंसान गुनाह करे या ग़लती। क्योंकि गलती करना मानव स्वभाव है। इसलिए आदम का हर बेटा गलती करता है। पाप करने वालों में सबसे अच्छा व्यक्ति वह है, जो तौबा करता है, जैसा कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है। परन्तु मुश्किल यह है कि वह गुनाह करने में अटल रहे और उस पर डट जाए। यह भी दोष है कि एक व्यक्ति को नसीहत की जाए परन्तु वह न नसीहत सुनता हो और न उसपर अमल करता हो। उसको याद दिलाया जाए, लेकिन याद दिलाने का कोई लाभ न हो। उसे प्रवचन दिया जाए और वह प्रवचन को स्वीकार न करे और उपदेश को ठुकरा दे। न तौबा करे और न क्षमा मांगे। बल्कि डट जाए, मुँह फेर ले और घमंड करता फिरे।
''और जब उसके समक्ष हमारी आयतें पढ़ी जाती हैं, तो घमंड करते हुए मुँह फेर लेता है, जैसे उसने उन्हें सुना ही नहीं, मानो उसके दोनों कानों में बहरापन है। तो आप उसे दुःखदायी यातना की शुभसूचना दे दें।'' [330] [सूरा लुक़मान : 7]