क़ुरआन में ऐसी बहुत-सी आयतें हैं, जो बन्दों के लिए अल्लाह की दया और प्रेम का उल्लेख करती हैं। परन्तु बन्दा के लिए अल्लाह की मुहब्बत बन्दों के एक-दूसरे से प्रम की तरह नहीं है। क्योंकि मानवीय मानकों में प्रेम एक ऐसी आवश्यकता है, जिसे प्रेमी तलाश करता है और उसे प्रियतम के पास पा लेता है। जबकि महान अल्लाह हम से बेनियाज़ है, हमारे लिए उसकी मुहब्बत दया और कृपा की मुहब्बत है, ताक़तवर का कमज़ोर के साथ मुहब्बत है, मालदार का फ़क़ीर के साथ मुहब्बत है, सक्षम का असहाय के लिए प्रेम है, बड़े का छोटे के साथ प्रेम है और हिकमत का प्रेम है।
क्या हम अपने प्यार के बहाने अपने बच्चों को वह सब करने देते हैं, जो उन्हें पसंद है? क्या हम अपने प्यार के बहाने अपने छोटे बच्चों को घर की खिड़की से बाहर कूदने या बिजली के नंगे तार से खेलने की अनुमति देते हैं?
यह असंभव है कि किसी व्यक्ति के निर्णय उसके व्यक्तिगत लाभ और आनंद पर आधारित हों और वह ध्यान का मुख्य केंद्र हो। उसके व्यक्तिगत हित देश के हितों एवं धर्म व समाज के प्रभावों से ऊपर हो, उसे अपना लिंग बदलने की अनुमति हो, वह जो चाहे करे, जो चाहे पहने एवं रास्ते में जैसा चाहे करे, इस तर्क की बुनियाद पर कि रास्ता सभी का है।
यदि कोई व्यक्ति एक साझा घर में लोगों के समूह के साथ रहता हो, क्या वह इस बात को स्वीकार करेगा कि घर का उसका कोई साथी इस आधार पर कि घर सबका है, घर के हॉल में शौच करने जैसा घिनौना काम करे? क्या वह इस घर में बिना किसी नियम या नियंत्रण के रहने को स्वीकार करेगा? पूर्ण स्वतंत्रता वाला व्यक्ति एक बदसूरत प्राणी बन जाता है और जैसा कि यह सिद्ध हो चुका है और इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है कि इंसान इस पूर्ण स्वतंत्रता को सहन करने में असमर्थ है।
व्यक्तिवाद सामूहिक पहचान का स्थान नहीं ले सकत, चाहे व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली या प्रभावशाली क्यों न हो। समाज के सदस्य ऐसे वर्ग हैं, जिन्हें एक-दूसरे की आवश्यकता है। वे एक-दूसरे से अप्रासंगिक नहीं हो सकते। उनमें से कुछ लोग फ़ौजी हैं, कुछ डॉक्टर, कुछ नर्स तो कुछ जज हैं। भला उनमें से किसी एक के लिए यह कैसे संभव है कि वह अपनी ख़ुशी हासिल करने के लिए दूसरों पर अपना लाभ और निजी स्वार्थ लादे और ध्यान का मुख्य केंद्र बन जाए?
इंसान अपनी ख़्वाहिशों को स्वतंत्र छोड़कर उनका ग़ुलाम बन जाता है, जबकि अल्लाह चाहता है कि वह उनका मालिक बने। अल्लाह इंसान से चाहता है कि वह एक समझदार, बुद्धिमान व्यक्ति बने, जो अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखे। उससे इच्छाओं को बिल्कुल ख़त्म करने की मांग नहीं है, बल्कि उसे आत्मा और रूह को ऊपर उठाने के लिए इन इच्छाओं को सही दिशा दिखाना है।
जब एक पिता अपने बच्चों को अध्ययन के लिए कुछ समय खास करने के लिए बाध्य करता है, ताकि वे भविष्य में ज्ञान के मैदान में एक ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकें। जबकि उन बच्चों को केवल खेलने की इच्छा होती है, तो क्या वह इस समय एक क्रूर पिता माना जाता है?