सृष्टिकर्ता के एक होने की गवाही और स्वीकृति देना और उसी की इबादत करना, साथ ही यह स्वीकार करना कि मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- उसके बन्दे एवं उसके रसूल हैं।
नमाज़ के द्वारा सारे संसारों के रब के साथ संबंध साधे रखना।
रोज़ा के माध्यम से एक व्यक्ति की इच्छा और आत्म-नियंत्रण को मजबूत करना और दूसरों के साथ दया और प्रेम की भावनाओं को विकसित करना।
ज़कात के रास्ते से फ़क़ीरों एवं मिस्कीनों पर एक तय प्रतिशत ख़र्च करना। यह एक इबादत है, जो इंसान को ख़र्च करने एवं देने के गुणों को अपनाने तथा कंजूसी एवं बखीली की भावनाओं से दूर रहने में मदद करती है।
मक्का के हज के माध्यम से कुछ विशेष इबादतों को अंजाम देकर, जो कि तमाम मोमिनों के लिए एक जैसी हैं, एक विशिष्ट समय और स्थान पर निर्माता के लिए निवृत्त होना। यह अलग-अलग मानवीय संबद्धताओं, संस्कृतियों, भाषाओं, दर्जों और रंगों की परवाह किए बिना एक साथ सृष्टिकर्ता की ओर आकर्षित होने का प्रतीक है।