इस्लाम बहुविवाह की अनुमति क्यों देता है?

वैश्विक आँकड़ों के अनुसार, पुरुषों और महिलाओं का जन्म लगभग समान दर से होता है। यह वैज्ञानिक रूप से ज्ञात है कि महिला बच्चों के बचने और जीवित रहने की संभावना लड़कों की तुलना में अधिक होती है। युद्धों में पुरुषों की हत्या का प्रतिशत महिलाओं की तुलना में अधिक होता है। इसी तरह यह भी वैज्ञानिक रूप से ज्ञात है कि महिलाओं का औसत जीवनकाल पुरुषों की तुलना में अधिक होता है। नतीजतन, दुनिया में महिला विधवाओं का प्रतिशत पुरुष विधवाओं की तुलना में अधिक है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि विश्व में स्त्रियों की जनसंख्या पुरुषों की जनसंख्या से अधिक है। तदनुसार, प्रत्येक पुरुष को एक पत्नी तक सीमित रखना व्यवहारिक दृष्टि से उचित नहीं हो सकता है।

ऐसे समाजों में, जहां बहुविवाह कानूनी रूप से प्रतिबंधित है, पुरुषों के लिए पत्नी के अतिरिक्त कई प्रेमिकाएं और विवाहेतर संबंध होना आम बात है। यह बहुविवाह की एक अंतर्निहित स्वीकृति है, लेकिन यह उनके यहाँ अवैध है। इस्लाम से पहले यही स्थिति आम थी। इस्लाम इसे ठीक करने, महिलाओं के अधिकारों और सम्मान की रक्षा करने और उन्हें एक प्रेमिका से एक ऐसी पत्नी में बदलने के लिए आया है, जिसके पास अपने और अपने बच्चों के लिए गरिमा और अधिकार हों।

आश्चर्यजनक रूप से, इन समाजों को गैर-विवाहित संबंधों या समलैंगिक विवाहों को स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं है। साथ ही स्पष्ट जिम्मेदारी के बिना स्थापित रिश्तों को स्वीकार करने या यहां तक कि बिना पिता के बच्चों को स्वीकार करने में भी कोई परेशानी नहीं है। परन्तु, यह एक पुरुष और एक से अधिक महिलाओं के बीच क़ानूनी विवाह को बर्दाश्त नहीं करते हैं। दूसरी तरफ़ इस्लाम इस मामले में बुद्धिमान है। वह महिलाओं की गरिमा और अधिकारों को बनाए रखने के लिए पुरुष को कई पत्नियां रखने की अनुमति देता है, जब तक उसकी चार से कम पत्नियाँ हों और न्याय और क्षमता की शर्त पाई जाए। उसने यह अनुमति उन महिलाओं की समस्या को हल करने के लिए दी है, जो एक अविवाहित पति नहीं पाती हैं और उनके पास विवाहित पुरुष से शादी करने या रखैल बनने के लिए मजबूर होने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है।

हालाँकि इस्लाम बहुविवाह की अनुमति देता है, लेकिन ऐसा नहीं है जैसा कि कुछ लोग समझते हैं कि एक मुसलमान को एक से अधिक महिलाओं से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता है।

''और यदि तुम्हें डर हो कि अनाथ लड़कियों (से विवाह) के मामले में न्याय न कर सकोगे, तो अन्य औरतों में से जो तुम्हें पसंद हों, दो-दो, या तीन-तीन, या चार-चार से विवाह कर लो। लेकिन यदि तुम्हें डर हो कि (उनके बीच) न्याय नहीं कर सकोगे, तो एक ही से विवाह करो अथवा जो दासी तुम्हारे स्वामित्व में हो (उससे लाभ उठाओ)। यह इस बात के अधिक निकट है कि तुम अन्याय न करो।" [208] [सूरा अल-निसा : 3]

क़ुरआन दुनिया की एकमात्र धार्मिक किताब है, जो बताती है कि न्याय की शर्त पूरी न होने पर केवल एक पत्नी रखनी चाहिए।

“और तुम पत्नियों के बीच पूर्ण न्याय कदापि नहीं कर[83] सकते, चाहे तुम इसके कितने ही इच्छुक हो। अतः (अवांछित पत्नी से) पूरी तरह विमुख न हो जाओ कि उसे अधर में लटकी हुई छोड़ दो। और यदि तुम आपस में सामंजस्य बना लो और (अल्लाह से) डरते रहो, तो निःसंदेह अल्लाह क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान है।” [209] [सूरा अल-निसा : 129]

फिर भी शादी के लिए इस शर्त को शामिल करने के बाद औरत को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने पति की एकमात्र पत्नी बनी रहे। क्योंकि यह मूल शर्त है, जिसका पालन अनिवार्य है और उसे तोड़ना जायज़ नहीं है।

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