क्या इस्लाम लोकतंत्र को मान्यता देता है?

मुसलमानों के पास लोकतंत्र से बेहतर व्यवस्था है, जिसे शूरा व्यवस्था (विचार विमर्श पर आधारित व्यवस्था) कहते हैं।

लोकतंत्र : उदाहरण के तौर पर परिवार के संबंध में एक महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय, जब आप राय देने वाले व्यक्ति के अनुभव, उम्र या ज्ञान की परवाह किए बिना अपने परिवार के सभी सदस्यों की राय को ध्यान में रखते हैं और मकतब के बच्चे से लेकर बुद्धिमान दादाजी तक सभी की राय को समान मानते हैं, इसे लोकतंत्र कहा जाता है।

शूरा व्यवस्था (विचार विमर्श पर आधारित व्यवस्था) : यह बड़ी उम्र, बड़े स्थान एवं अनुभव वाले से इस बात पर मश्वरा करना है कि क्या सही है और क्या गलत?

अंतर बहुत स्पष्ट है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी कुछ देशों में ऐसे कामों की अनुमति देना है, जो अपने आप में प्रकृति, धर्म, रीति रिवाज एवं परंपराओं के ख़िलाफ़ हैं। मसलन सूदखोरी और समलैंगिकता आदि घिनौने कामों की अनुमति देना। ऐसा केवल वोट में बहुमत हासिल करने के कारण किया जाता है। यदि अधिकांश वोट नैतिक पतन का आह्वान करे, तो लोकतंत्र भी अनैतिक समाजों के निर्माण में योगदान करता है।

इस्लामिक शूरा व्यवस्था और पश्चिमी लोकतंत्र के बीच अंतर क़ानूनसाज़ी में संप्रभुता के स्रोत के साथ खास है। लोकतंत्र में क़ानूनसाज़ी की संप्रभुता जनता एवं समुदाय से शुरू होती है, जबकि इस्लामी शूरा व्यवस्था में क़ानूनसाज़ी का मुख्य स्रोत अल्लाह के आदेश हैं, जो शरीयत की शक्ल में हमारे सामने मौजूद हैं। यह किसी मनुष्य का निर्माण नहीं है। इनसान को अपने क़ानूनों की बुनियाद इसी अल्लाह की शरीयत पर रखनी होगी। इसी प्रकार जिस संबंध में कोई आदेश नहीं आया है, उसमें उसे इजतिहाद का अधिकार है, मगर शर्त यह है कि वह इसी शरई हलाल व हराम के अंतर्गत हो।

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