नासिख़ और मंसूख़ शरीयत के आदेशों में विकास का नाम है। मसलन पूर्व के आदेश को लागू करने से रोक देना, बाद में आने वाले किसी आदेश द्वारा उसे बदल देना, मुतलक़ (अनियत) को मुक़ैयद (नियत) करना या मुक़ैयद को मुतलक़ करना। यह आदम -अलैहिस्सलाम- के युग से ही पूर्व की शरीयतों में प्रचलित है। मसलन आदम -अलैहिस्सलाम- के ज़माना में भाई का अपनी सगी बहन से शादी करना जायज़ था, लेकिन बाद की सारी शरीयतों में नाजायज़ हो गया। इसी प्रकार इब्राहीम -अलैहिस्सलाम- एवं उनके पहले की सभी शरीयतों में शनिवार के दिन काम करना सही था, फिर मूसा -अलैहिस्सलाम- की शरीयत में यह बुरा हो गया। अल्लाह तआला ने बनी इसराईल की बछड़े की इबादत के बाद उन्हें अपने आपकी हत्या करने का आदेश दिया, फिर बाद में उनसे इस आदेश को निरस्त कर दिया। इसके अलावा भी बहुत सारे उदाहरण हैं। एक आदेश को दूसरे आदेश से बदल देना एक ही शरीयत में या दो शरीयतों के बीच होता रहा है, जैसा कि हमने पिछले उदाहरणों में बयान किया।
उहारण स्वरूप, एक डॉक्टर अपने रोगी का एक विशिष्ट दवा द्वारा इलाज करना शुरू करता है और समय के साथ अपने रोगी के इलाज में क्रमशः दवा की खुराक को बढ़ाता या घटाता जाता है। हम उसे हकीम मानते हैं, जबकि अल्लाह के लिए उच्च उदाहरण हैं। इस्लामी आदेशों में नासिख़ तथा मंसूख़ का पाया जाना, दरअसल महान रचनाकार की हिकमत में से है।