प्राकृतिक आपदाओं में सृष्टिकर्ता की क्या हिकमत है?

सृष्टिकर्ता ने प्रकृति के नियम और उन्हें संचालित करने वाली पद्धतियाँ स्थापित कर रखी हैं। ये नियम और पद्धतियाँ किसी पर्यावरणीय असंतुलन या खराबी की स्थिति में खुद को खुद के द्वारा बचाने का काम करती हैं और पृथ्वी में सुधार और जीवन को बेहतर तरीके से जारी रखने के उद्देश्य से इस संतुलन के अस्तित्व को बनाए रखती हैं। दरअसल वही चीज़ पृथ्वी पर ठहरती और बाक़ी रहती है, जो लोगों और जीवन के लिए लाभकारी होती है। जब पृथ्वी पर मनुष्यों को प्रभावित करने वाली आपदाएँ, जैसे बीमारियाँ, ज्वालामुखी, भूकंप और बाढ़ आदि आती हैं, तो उनके माध्यम से अल्लाह के कुछ नाम और गुण, जैसे शक्तिशाली, शिफ़ा देने वाला और रक्षक आदि प्रकट होते हैं। उसका नाम न्याय करने वाला किसी अत्याचारी या पापी को सज़ा देते समय प्रकट होता है और उसका नाम हकीम निष्पाप व्यक्ति को आज़माते समय प्रकट होता है, जिसे आज़माइश के समय सब्र करने पर अच्छा बदला मिलेगा तथा सब्र न करने पर यातना का सामना करना पड़ेगा। इन आज़माइशों के माध्यम से इंसान अपने रब की महानता को एवं उसके दिए हुए उपहारों के माध्यम से उसके जमाल (सौंदर्य) को जान पाता है। यदि इंसान केवल अल्लाह के ख़ूबसूरत नामों एवं गुणों को जाने तो वह अल्लाह को पूरी तरह जान नहीं पाएगा।

बहुत सारे समकालीन भौतिकवादी दार्शनिकों के नास्तिक्ता अपनाने के पीछे आपदाओं, बुराई और कष्ट का हाथ रहा है। उन्हीं में से एक दार्शनिक ''एंथोनी फ्लेव'' हैं। उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले अल्लाह के अस्तित्व को स्वीकार किया एवं एक पुस्तक लिखी जिसका नाम ''अल्लाह पाया जाता है'' रखा। बावजूद इसके कि वह बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में नास्तिकता के नेता थे, उन्होंने अल्लाह के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए कहा :

''मानव जीवन में बुराई और पीड़ा की उपस्थिति माबूद के अस्तित्व को नकारती नहीं है, लेकिन यह हमें दैवीय गुणों पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करती है।" एंथनी फ्लेव का मानना है कि इन आपदाओं के कई सकारात्मक पहलू हैं। मसलन यह इन्सान की भौतिक क्षमताओं को उकसाती हैं और वह कुछ ऐसा आविष्कार करता है, जो उसे सुरक्षा प्रदान करता है। यह उसके सर्वोत्तम मनोवैज्ञानिक लक्षणों को भी उभारती हैं और उसे लोगों की मदद करने के लिए प्रेरित करती हैं। पूरे इतिहास में मानव सभ्यताओं के निर्माण में बुराई और कष्ट का भी योगदान रहा है। वह कहते हैं : "इस दुविधा की व्याख्या करने के लिए चाहे कितने भी शोध हों, धार्मिक व्याख्या सबसे स्वीकार्य और जीवन की प्रकृति के सबसे अधिक अनुकूल रहेगी।” [308] पुस्तक ''ख़ुराफ़ह अल-इल्हाद'' (नास्तिक्ता का मिथक) से उद्धरित, डा० अम्र शरीफ़, प्रकाशन वर्ष 2014 ई०।

वास्तव में, हम देखते हैं कि हम कभी-कभी अपने छोटे बच्चों को, उनके पेट में चीरा लगवाने के लिए प्यार से ऑपरेटिंग रूम में ले जाते हैं। ऐसा करते समय हमें डॉक्टर की बुद्धिमत्ता, छोटे बच्चे के लिए उसके प्यार और उसे बचाने के लिए उसकी तत्परता पर पूरा भरोसा होता है।

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