अल्लाह ने मानव को कुफ़्र एवं ईमान में से किसी एक को चुनने का विकल्प क्यों दिया है?

''आप कह दें कि यह तुम्हारे पालनहार की ओर से यह सत्य है ।जो चाहे ईमान लाए एवं जो चाहे इनकार कर दे।'' [28] [सूरा अल-कहफ़ : 29]

सृष्टिकर्ता के लिए यह संभव था कि वह हमें अपने आज्ञापालन एवं इबादत पर मजबूर कर देता, लेकिन मजबूर करने से इन्सान की रचना का अपेक्षित उद्देश्य पूरा नहीं होता।

अल्लाह की हिकमत आदम को पैदा करने और उसे ज्ञान प्रदान करने के माध्यम से प्रदर्शित हुई।

''और उसने आदम को सभी नाम सिखा दिये, फिर उन्हें फ़रिश्तों के समक्ष प्रस्तुत किया और कहा कि मुझे इनके नाम बताओ, यदि तुम सच्चे हो।'' [29] फिर उन्हें विकल्प को चुनने की क्षमता प्रदान की गई।

[सूरा अल-बक़रा : 31]

''और हमने कहा : ऐ आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी स्वर्ग में रहो, तथा इसमें से जिस स्थान से चाहो, मन के मुताबिक खाओ, और इस वृक्ष के समीप न जाना, अन्यथा अत्याचारियों में से हो जाओगे।'' [30] फिर उनके लिए तौबा और अल्लाह की ओर लौटने का दरवाज़ा खुला रखा गया, यह देखते हुए कि विकल्प अवश्य ही ग़लती, गुनाह एवं ग़लत रास्ते की ओर ले जाने का कारण बनेगा।

[सूरा अल-बक़रा : 35]

''फिर आदम ने अपने पालनहार से कुछ शब्द सीखे, तो उसने उसे क्षमा कर दिया। वह बड़ा क्षमाशील दयावान् है।'' [31] अल्लाह ने आदम -अलैहिस्सलाम- को धरती पर अपना खलीफ़ा बनाना चाहा।

[सूरा अल-बक़रा : 37]

''और (हे नबी! याद करो) जब आपके पालनहार ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं धरती में एक ख़लीफ़ा बनाने जा रहा हूँ। वे बोले : क्या तू उसमें उसे बनायेग, जो उसमें उपद्रव करेगा तथा रक्त बहायेगा? जबकि हम तेरी प्रशंसा के साथ तेरे गुण और पवित्रता का गान करते हैं! (अल्लाह) ने कहा : जो मैं जानता हूँ, वह तुम नहीं जानते।'' [32] इसलिए इच्छा और चुनने की क्षमता अपने आप में एक वरदान है, अगर इसका सही और सच्चे मार्ग में उपयोग किया जाए। जबकि यह एक अभिशाप है अगर बुरे उद्देश्यों के लिए इसका इस्तेमाल किया जाए।

[सूरा अल-बक़रा : 30]

ज़रूरी है कि इरादा एवं एख़्तियार ख़तरों, फ़ितनों, संघर्ष एवं आत्मा के जिहाद से घिरे हों। यह इंसान के लिए अधिक बड़े दर्जे और सम्मान की बात है, उन (बुरे कर्मों की ओर) झुकने से जो नकली खुशी की तरफ़ ले जाते हैं।

''बिना किसी उज़्र (कारण) के बैठे रहने वाले मोमिन और अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों के साथ जिहाद करने वाले, बराबर नहीं हो सकते। अल्लाह ने अपने धनों तथा प्राणों के साथ जिहाद करने वालों को पद के एतिबार से, जिहाद से बैठे रहने वालों पर प्रधानता प्रदान किया है। जबकि अल्लाह ने सब के साथ भलाई का वादा किया है।तथा अल्लाह ने जिहाद करने वालों को महान प्रतिफल देकर, जिहाद से बैठे रहने वालों पर वरीयता प्रदान किया है।'' [33] प्रतिफल एवं यातना का औचित्य ही क्या है, यदि हमारा अपना कोई एख़्तियार ही न हो, जिसके आधार पर हम बदले के हक़दार हों।

[सूरा अन-निसा : 95]

लेकिन इन सारी बातों के साथ यह भी ज्ञात होना चाहिए कि इंसान को प्राप्त यह एख़्तियार दुनिया में सीमित है। साथ ही अल्लाह हमारे केवल उन कामों का हिसाब लेगा, जिनको करने या न करने का हमारे पास एख़्तियार रहा हो। जैसे हालात एवं परिस्थिति जिनमें हम पले-बढ़े हैं, उनमें हमारा कोई एख्तियार नहीं है। इसी तरह हमने अपने पिताओं को नहीं चुना है और इसी तरह हमारा रंग और शक्ल कैसी हो, इसमें भी हमारा कोई एख़्तियार नहीं है।

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