उत्तर- यह दूसरों से नेमत के ख़त्म हो जाने की अभिलाषा रखना या दूसरों को नेमत मिलने को घृणा की दृष्टि से देखना है।
अल्लाह तआला का फ़रमान है: (وَمِنْ شَرِّ حَاسِدٍ إِذَا حَسَدَ) ''ईर्ष्या करने वाले की ईर्ष्या से तेरी शरण माँगता हूँ''। [सूरा अल-फ़लक़: 5]
अनस बिन मालिक -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: एक दूसरे से नफ़रत न करो, न हसद करो, और न ही मुंह फेरो, और सब -अल्लाह के बंदे- भाई भाई हो जाओ''। इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।